मेरी माँ की दास्ताँ मेरे शब्दों में बयाँ

न बनाएं दोस्त न बनाई सहेलियाँ
अपने बच्चों में ही बसाई एक छोटी सी दुनियाँ

अपने परिवार की खुशियों के लिए,
सह गई सारे गम।
अंदर ही अंदर आँसू पी गई,
होने न दी अपनी आँखे नम।

बलिदान की मिसाल है यह,
कुदरत का कमाल है यह।

पर फ़िक्र कुछ ज़्यादा ही करती है,
और अपना ज़िक्र कम ही करती है।

अब इस पेड़ की जड़ें कमज़ोर पड़ रहीं हैं ,
और टहनियाँ शोर कर रहीं हैं।
कि अब मेरी देखभाल ज़्यादा कर ,
और औरों की परवाह कम कर।


शायद यह सभी माँओं का हाल है।

आपका इस बारे में क्या विचार है ?

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